पत्रकारिता की दहलीज़ पर जब कोई नौनिहाल जोश, जज्बे और उम्मीद के साथ कदम रखता है, तो शुरुआत मे उसे ये दुनिया हसीं लगती है, लेकिन समय बीतने के साथ हकीकते खुद सामने आ जाती है, उसके सपने किसी रेत के महल की तरह भरभरा कर गिर जाते है
बडे लगन और त्याग से पढाया करते थे
अनुशासन और आदर्श की बातें बताया करते थे
उसने एक बडे शिक्षण संस्थान मी दाखिला लिया
लोग कहने लगे चलो जीवन भर कष्ट सहा लेकिन बच्चों को बना दिया
अम्मा लगी सपने बुनने बाबू जी लगे दिन गिनने
उसकी भी होने लगी बड़ी बड़ी बाते लंबी लंबी मुलाकातें
साल बीता तो पता चला तो ठगे गए
बड़ी बड़ी बातें और वादे ही उसके साथ दगे गए
उमींदों की मंजिल बिखर गयी सपनो का खंडहर हो गया
अम्मा बाबू जी के सपनो का महल उसकी आँखों के सामने बहने लगा
क्या दे जवाब कैसे करू खंडहर होते सपनो को पूरा
असहाय असमंजस की स्थिति मे हूँ अजब परिस्थति मे हूँ
लोग कहते है उसे कि बड़ी प्रतिभा है बड़ा मेहनती है इस पर करता है गहन चिंतन तो होने लगती है चिंता
कुछ अपने लोग समझाते है उसे बेटा चिंता मत करो, उम्मीद रखो
तो कुछ अपने लोग समझाते है बड़ी बड़ी बाते और कहते है कान्टेक्ट मे रहो
दूसरो की सुनकर सह लेता था वो लेकिन अम्मा बाबू जी की उमींदों ने दिल को भेद दिया
क्योंकि उनके सपनो मे ही उसके सपने है
कुछ लोग सफल हुए क्योंकि वे उनके अपने है
जीनोहने अपनी पैठ बना रखी है इंडस्ट्री मे
वो तो आउट हो गया पहली कमेंट्री मे
कुछ लोगो को यह कविता भा गयी
कुछ लोगो के दिल मे समां गयी
किसी के दिल का दर्द तो किसी के लिए मौसम सर्द
यह अकेले उसकी नही कहानी है आज उसकी तो कल किसी और कि जुबानी है
Wednesday, November 28, 2007
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3 comments:
Bahut achchhee kavita hai. Thanks.
Vivek Bhatnagar
अनुराग जी आप ने अपनी इस कविता के जरिये अप्रत्यक्ष रूप से पत्रकारिता का जो संदर्भ प्रस्तुतीकरण किया है वो सच में काबिले तारीफ है। आपकी इस कविता पर मैं तो सिर्फ इतना ही कह सकता हूं कि "घायल की गति घायल जाने"।
- आकाशदीप सिन्हा
Kya baat hai Anurag bhai... aapke patrakaar ban jane ki kaahani achchi lagi.. waise yeh blog start karne ka idea is too good... and the name is outstanding... different just like journalists...
waise ab to hum bhi apni kavitayein zaruru post karenge...
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